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Thursday, September 18, 2014

CM V/S CS

चौदह सालो में पहली बार झारखण्ड का मुख्य सचिव झारखंडी हुआ।  यह केवल खतियानी झारखंडी नहीं है बल्कि झारखंडी अस्मिता का प्रतीक भी बनकर उभरा है। झक्की ,पागल ,मस्त ,बिंदास जैसे उपमाओं से जाने जाने वाले सजल चक्रवर्ती ने मुख्य सचिव का पद सँभालते ही अभिजात्य बाबुओ का चोला  उतार फेंका। लोकल भाषा में लोगो के दिलो तक उतरने के लिए एक भारी भरकम शरीर के साथ जनता से सीधे संवाद करने लगा। 1987 की एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। किसी बात को लेकर रांची में दो समुदायों में तनाव हो गया था। सजल सजल चक्रवर्ती तब रांची के उपायुक्त थे।  रांची के एस एस पी शायद कोई नारायण थे , सजल गली गली पैदल घप्पम्ने निकल गए और स्थानीय भाषा में बोलने लगे , " का बॉस कहेला अपने अपने लड़ाई कर रह हिहिं " तब उपायुक्त का रौब हुआ करता था।  उपयुक्त को घर घर घुमते देख सभी को लगा कि अपना हितैषी आ गया घंटे दो घंटे में भारी तनाव ख़त्म हो गया।  
वही सजल अब मुख्य सचिव हैं। और उसी स्टाइल में प्रदेश को साधने की कोशिश कर रहे हैं। चारा घोटाले में काफी दिनों तक सस्पेंड रहने वाले सजल चक्रवर्ती अपनी जमीं को जमीन माफियाओ से मुक्त कराने के लिए सिमलिया रिंग रोड के पास धरना पर भी अकेले बैठे थे। बन्दर बिल्ली कुत्ता पालने वाले सजल निहायत ही झारखंडी दिल दिमाग रखते हैं। तभी तो 1990 के आसपास पत्रकारों के धरना में भी बहैसियत उपायुक्त खुद भी धरने पर बैठ जाते थे। बाबूगिरी करना सीखा ही नहीं। यही वजह है कि सी एम से अधिक राज्य में सी एस पॉपुलर है। कद काठी , बोल चाल और व्यव्हार से सजल चक्रवर्ती सबसे अलग हैं। नब्बे के दशक के बाद मेरी न कोई पहचान उनसे रही न सम्बन्ध।  लेकिन मुख्य सचिव की हैसियत से जब रात रात भर वे अस्पतालों और प्रखंडो का दौरा करने लगे तो मुझे उस नब्बे के झारखंडी उपायुक्त की याद आ गयी। सजल तो हीरा है हीरा। ऐसे हीरा अधिकारी की दो विधायको से बकबक / गाली गलौज / बहस /दुर्व्यवहार समझ से परे है।  लेकिन विधायको की बाद की हरकत और बयानबाजी देखे सुने तो आप खुद कहेंगे " ऐसे चिरकुट नेता और मंत्रियो से तो बेहतर है झारखंडी नौकरशाह ".  . इन विधायको को चिरकुट कहना शायद अपमानजनक शब्द या असंसदीय भी हो लेकिन क्या यह सही नहीं है कि अकील अख्तर खुद से हुए दुर्व्यवहार को " अल्पसंख्यको का अपमान " घोषित कर रहे हैं। राज्य के सभी अल्पसंख्यको का उन्होंने ठेका ले रखा है क्या ? क्या उनके चाल चलन उनकी हरकते , पूरे अल्पसंख्यक समुदाय का माना जायेगा ? इसके बाद इन विधायको का धरना देना क्या दिखता है ? सजल की गलती यही थी कि तीन बजे की मीटिंग में वे देर से पहुंचे। देर भी इसलिए हुई क्योंकि राज्य के महाधिवक्ता के साथ वे बैठक कर रहे थे।  कोई क्लब में राग रंग नहीं कर रहे थे। यही विधायक किसी सार्वजानिक कार्यक्रम में समय पर पहुचना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. अगर  अख्तर इसे अल्पसंख्यको का अपमान समझते हैं तो गैर अल्पसंख्यक विधायक ऐसी हालत में बहुसंख्यको की भावना का सहारा लेंगे।  ऐसे फिरकापरस्त विधायको को सजल चक्रवर्ती ने कम करके ही आँका।  कोई ढीठ झारखंडी होता तो ऐसे व्यव्हार पर शायद लप्पड़ थप्पड़ भी कर देता। 
 झारखण्ड के नेताओ मंत्रियो की शिकायत रही है कि यहाँ के नौकरशाह बेलगाम हैं।  वे झारखंडी मानसिकता की दुहाई देकर नौकरशाहों को कोसते रहे हैं।  लेकिन झारखण्ड का जर्रा जर्रा जानता है कि राज्य के विधायको , मंत्रियो और नेताओ ने चौदह सालो में जो लूट मचाई उसका प्रत्यक्ष प्रमाण होटवार का बिरसा मुंडा जेल और परोक्ष प्रमाण राज्य के गरीब वंचित जनता की आह है।  जब ये लोग इज्जत  प्रतिष्ठा और सम्मान की बात करते हैं तो सजल दा की तरह ही " गेट आउट " कहने का दिल करता है। झारखण्ड के नेताओ की विश्वसनीयता क्या है यह दो दिन पहले हुए मेयर चुनाव में ही दिखा , जब मात्र १८ फीसदी लोग वोट डालने निकले।  लोकसभा  चुनाव में  देश के नेताओ की विश्वसनीयता के मुकाबले झारखंडी नेताओ की विश्वसनीयता बाबाजी का ठुल्लु जैसा है। यही कारण है कि मेयर चुनाव में लोग घर पर मस्ती करते रहे। विधानसभा में बैठे विधायक भी कमोबेश ऐसे ही हैं इसलिए सजल दा की झिड़की सुनने में प्यारी लगी। 

भाई साहब हमें निराश न कीजिये !!

भाई साहब हमें निराश न कीजिये !!
            सबसे पहले तो २८ साल की यात्रा के लिए बधाई !! इस दौरान कितने अखबार आये और गए लेकिन आप पल्लवित होते रहे . अगर आप सहित रांची के कुछ अन्य अखबारों को देखे तो जो गेट -अप या जो कंटेंट झारखण्ड के अखबारों में है वह देश के शीर्ष हिंदी राष्ट्रीय अखबारों में भी नहीं . निश्चित रूप से इस रस्ते को दिखाने और उस उंचाइयो को पकड़ने वाले आप अग्रणी हैं . पत्रकारीय परिवेश बनाने और पाठको को मानसिक रूप से पक्व बनाने में आप लोगो का सराहनीय योगदान रहा है . मुझे याद है कि कभी रांची के अखबार संग्रहणीय अंक का हवाला देकर राष्ट्रीय पर्वो और अपने स्थापना दिवस पर मोटे मोटे अखबार निकालते थे . पत्रकार यह देखता था कि उनके अखबार के पृष्ठों की संख्या कितनी है .विज्ञापन और उलजलूल आलेखों से भरा यह संग्रहणीय अंक रद्दीवाले के लिए जिज्ञासा का सबब बनता था लेकिन अब एक माहौल बना है हम उसे ही पढ़ते हैं जिसे पढना चाहिए . इसीलिए आपके सफ़र के इस पड़ाव पर प्रभात विमर्श पढ़कर सीधे प्रतिक्रिया देने के लिए बैठ गया , बिना नित्य कर्म किये .हमेशा  की तरह उम्मीद नहीं है कि यह आपके अखबार में छपने योग्य है लेकिन प्रतिक्रिया देने का जज्बा भी आपके अखबार ने ही पैदा किया है इसलिए कम से कम आपतक हाजिरी तो बना दी जाये .
        बड़े बड़े नामो ने प्रभात विमर्श में जो राय जारी किये हैं उससे मै बिलकुल ही इत्तफाक नहीं रखता हूँ . इन सभी वरिष्ठ और नामचीन पत्रकारों ने एक सुर से पत्रकारिता के गिरते स्तर और व्यावसायिकता के हाथो गिरवी पत्रकारीय मिशन पर चिंता जाहिर की है .. हरिवंश राय बच्चन की चार लाइनों से अपनी बात शुरू करता हूँ ..बच्चन जी ने मधुशाला में लिखा है ."..अपने युग में सबको अनुपम  ज्ञात हुई अपनी हाला . अपने युग में सबको अद्भुत ज्ञात हुआ अपना प्याला , फिर भी वृद्धो से जब यह पूछा एक यही उत्तर पाया .. अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला ..."   जाहिर है मानव स्वभाव एक ही प्रकाश पुंज के आसपास घूमने का अभ्यस्त है इसलिए दूसरे ( काल ) प्रकाशपुंज में उन्हें खोट ही खोट नजर आती है . प्रभात विमर्श में अधिकांश बड़े पत्रकार निराश दिखे . उन्हें हाल के पत्रकारों और पत्रकारिता पर अधिक विश्वास नहीं दिखा . सत्ता से संबंधो पर ऐतराज दिखा और कमार्शियालिजेशन पर घोर आपत्ति दिखी . मै छोटा और अकिंचन पत्रकार जो महज  चौबीस सालों से पत्रकारिता कर रहा हो इनके चिंता पर सवाल खड़ा करे यह अच्छा नहीं लगता लेकिन मुझे लगता है कि इनकी चिन्ताओ से विरोध होना चाहिए . इसलिए कि हम डेमोक्रेसी में जी रहे हैं और आनेवाली पीढियों को निराश नहीं होने देना चाहिए ..
       हम तमाम तर्क दे ले लेकिन अगर देश दुनिया को सबसे अधिक प्रभावित  करने वाले तत्व हैं तो राजनीति और राजनीतिग्य . संविधान की व्यवस्था के तहत हम अदालती मामलो में ज्यादा दखल नहीं दे सकते वैसी हालत में कार्यपालिका और विधायिका ही दो ऐसे क्षेत्र हैं जो आम जनजीवन को गहरे तक असर करती है . और विधायिका तो कार्यपालिका को निर्देशित करता है . यह इस देश का सौभाग्य है कि विधायिका और कार्यपालिका के खिलाफ लिखने की छूट हमें हासिल है जिस कारण पत्रकारिता और पत्रकार  इनके इर्द गिर्द घूमता रहता है . यह बुरा भी नहीं है क्योंकि इनकी मौजूदगी बहुत हद तक  कार्यपालिका और विधायिका की निरंकुशता और भ्रष्ट आचारण पर नकेल कसे होती है ..और जिस बात पर हमारे वरिष्ठ पत्रकारों ने चिंता  जाहिर की है  (पत्रकार और सत्ता का गठजोड़ ) . उसमे कितने फीसदी पत्रकार लिप्त हैं ? शायद पांच फीसदी तक .. क्या किसी भी समाज के लिए इतना छोटा सा प्रतिशत को ग्रांट में नहीं लिया जा सकता . जब हर क्षेत्र में हर वर्ग में मूल्यों का ह्रास हो रहा है तो उसी मानवीय गुणों को लेकर तो पत्रकारिता करने कुछ पांच फीसदी पत्रकार भी जुड़ जाते हैं . इन्हें लेकर ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं . पत्रकार चौबीस घंटे काम करता है लेकिन वेतन एक ही शिफ्ट का लेता है यानि आज भी पत्रकार एक तिहाई वेतन पर काम कर रहे हैं ,इसके बाद भी उनकी कार्य क्षमता और नीयत पर सवाल खड़ा करना गलत होगा सत्ता के साथ नजदीकी होना उनका व्यवसाय गत मजबूरी भी है . और ऐसे पत्रकारों पर बड़ी आसानी से सवाल खड़े किये जाते हैं . किसी के खिलाफ  में खबर छापी तो आरोप लग जायेगा विपक्ष ने प्लांट किया है या पैसा नहीं मिला इसलिए ऐसी खबर छापी , किसी के पक्ष में छापा तो तोहमत लगेगा कि बिक गया पत्रकार . इसलिए तलवार के दोधार पर पत्रकार होता है
   अब रही व्यावसायिकता की बात ...बदलती व्यवस्था और बदलते दुनिया का यह सच है ..आज हम कई नामी अखबार और पत्रिका से इसलिए महरूम हो गए क्योंकि उन्होंने आहट  को पहचाना नहीं . रांची और झारखण्ड में दो रूपये और एक रूपये में अखबार बिकते हैं . महंगाई और व्यावसायिकता के इस दौर में यह निहायत मजाक नहीं लगता  है ,?लेकिन यह सच्चाई है . आज झारखण्ड के धुर देहात में जाये, वहां भी अखबार पढने को मिल जायेगा . सूचना का इतने गहरे तक पहुच व्यावसायिकता की दौड़ में भी कैसे संभव हुआ इसपर भी वरिष्ठ पत्रकारों ने सोचा है ?. महज विज्ञापन के भरोसे चलने वाले इन अखबारों ने पाठको को दो रुपया में अखबार पढ़ा दिया इसकी वजह है  व्यावसायिक मैनेजमेंट . लेकिन इस विधा में भी हमने पत्रकारिता के मिशन मोटो को छोड़ा नहीं है .प्रतिस्पर्धा आयी तो खुलापन आया .अगर किसी खबर को एक संस्था दबाता है तो दूसरा उस खबर की बखिया उधेड़ देता है . पाठक निश्चिन्त है यहाँ नहीं तो वहा होगा .. समाचार सूत्र पत्रकारों को धमकाता है कि अगर मेरी खबर नहीं छापियेगा तो दूसरे अखबार को दे दूंगा . यह सकारात्मक परिवर्तन के हम साक्षी नहीं है क्या ?
              आज अखबारी संस्था केवल सूचना नहीं पंहुचा रहा है ,सामाजिक सरोकारों से भी सीधे जुड़ा है . सेमिनार , बैठके जन जागरूकता अभियान कैम्पेन अखबारों के अभिन्न हिस्से हो गए है . भले इसका एक कारण प्रचार पाना और व्यावसायिक लाभ पाना हो लेकिन इसके साथ ही समाज का भला हो रहा है इसे क्यों नजर अंदाज किया जा रहा है ?
  और अंत में सबसे महत्त्व पूर्ण बात . जिन बड़े पत्रकारों ने थोक के भाव विमर्श में पत्रकारिता पर कलम चलाकर खेद जताया है उन्होंने पत्रकारिता के शत प्रतिशत शुचिता के कोई अभियान चलाया क्यों नहीं ? या केवल सवाल खड़े करनेकी जिमेवारी भर है उनकी जवाबदारी के लिए कौन सामने आएगा .
   एक बात के लिए और धन्यवाद देता हूँ . क्षेत्रीय पत्रकारिता को भाषाई पत्रकारिता कहने का न जाने कब से चलन चला हुआ है . मुझे इसपर ऐतराज है . भाषाई कहकर हम अख़बार के व्यापक संदर्भो को सीमित कर देते हैं .आपने इस पारंपरिक मोहजा को छोड़ा ..शुक्रिया !!!

एक कदम आगे चा ...चा चा , दो कदम पीछे चा चा चा .

एक कदम आगे चा ...चा चा ,  दो कदम पीछे चा चा चा ....

      सन 2003 की जुलाई महीने में हैदराबाद में एक कार्यक्रम में भाग लेने गया था . तब चंद्रबाबू नायडू आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे . उनकी एक सभा में भाग लेने गया था . नायडू ने तेलुगु में भाषण दिया तो वहां के साथी से पूछा कि आखिर लोग इनके भाषण पर इतने भाव विभोर क्यों हैं ?. पत्रकार मित्र ने कहा कि नायडू कह रहे हैं कि कई वायदों को वे पूरा नहीं कर सके हैं इसलिए लोगो से अपनी शर्मिंदगी जाहिर कर रहे थे . तफसील में मैंने पूछा तो पत्रकार मित्र ने नायडू के वायदों के  पूरे आंकड़े बताये . नायडू ने तीन हजार वायदे किये जिसमे बाईस सौ पर अमल हो गया , पांच सौ पर काम चल रहा है और तीन सौ पर काम होना बाकी है .  मै एक झारखंडी शासन का भुक्तभोगी तब हैरत में पड़ गया था कि क्या सचमुच इतने बकाया वायदों पर शर्म से डूबा जा सकता है ?.
     तब झारखण्ड महज तीन साल का नवजात था . लगता था जल्दी ही झारखंडी नागरिक जापान से अपनी तुलना कराएँगे क्योंकि हमें अपनी आर्थिक समृद्धि , सामाजिक संस्कारों और राजनीतिक भोलापन पर बेहिसाब गर्व था . इसलिए नायडू की स्वीकोरोक्ति  महज एक साफगोई और गर्वोक्ति  के अलावा कुछ नहीं लगा . आज बारह साल बाद झारखण्ड की बेशर्म राजनीति . सामाजिक विखंडन ,आर्थिक अराजकता और अंधकारमय भविष्य को देखता हूँ तो लगता है कि नायडू जैसा व्यक्तित्व झारखण्ड के लिए एक चमत्कारी नेता साबित होते .अकर्मण्य मंत्रियो , विधायको की फ़ौज , सामाजिक समरसता को तोड़ने को डटे संगठन , और अनियंत्रित नौकरशाह झारखण्ड को पाताल तक पहुचाने को आपस में ही लड़  रहे हैं . झारखण्ड आन्दोलन के दौरान एक नारा लगता था " कैसे लोगे झारखण्ड ," जवाब में उदघोष होता था ,' लड के लेंगे झारखण्ड " . झारखण्ड तो ले लिया लेकिन उसी झारखण्ड को अपने स्वार्थ , फायदा और अपनी सम्पन्नता बढाने के लिए लोगो ने लड़ाई का अखाडा बना दिया है . और झारखण्ड को हथियाने के लिए भ्रष्टाचार के कीचड में वाराह क्रीडा कर रहे हैं . दोष केवल नेताओ को नहीं दिया जा सकता , यह परमुखापेक्षी रवैया होगा .  यहाँ के नौकरशाह , एन जी ओ , व्यापारी व्यवसायी , बुद्धिजीवी जिसमे पत्रकार भी शामिल हैं , शिक्षक और आम जनता भी बराबर के हिस्सेदार हैं . बाहरी  निवेशक झारखण्ड से भाग रहे हैं .किसी को कोई चिंता नहीं . सरकार अखबार में अपने बयानों और फोटो छपवाने में ही मगन है . पांच साल पहले तक दो लाख करोड़ का एम् ओ यु हुआ था .इसका पचीस फीसदी एम् ओ यु भी जमीन पर उतरता  तो झारखण्ड जापान तो नहीं लेकिन हिन्दुस्तान का सबसे प्रबल सम्भावना वाला राज्य जरूर बन जाता .  
 अखबारों में छपने वाली घोषणाओ की हकीक़त अगर जनता जान जाये तो शायद अख़बार पढना भी छोड़ दे . जनता के मानस में अख़बार की विश्वसनीयता अभी भी बनी हुई है . दो रूपये खर्च कर वह घंटे भर समय अख़बार पढने में लगाता है . बड़े ही अदब से जनता को बताना चाहता हूँ कि झारखण्ड में घोषनाये कैसे होती है ..झारखण्ड के नेताओ को छपास रोग है . पत्रकार उनके आसपास मंडराते रहते हैं . पत्रकार जनता की मुसीबतों पर चर्चा करते हैं और ठीक उसी समय नेता मंत्री बिना आगा पीछा देखे घोषणा कर देता है . घोषणा अख़बार में छप जाती है और लोगो की उम्मीदे बढ़ जाती है . लेकिन सच्चाई यह है कि इन घोषणाओ के पीछे ना कोई योजना होती है ना ब्लूप्रिंट ना कोई आधिकारिक चर्चा और ना ही नीयत .  किसी दिन खबर  छपी कि रांची में मोनो रेल की स्थापना की जाएगी . नेता ,नौकरशाह  और जनता खबर पढ़कर गदगद होते रहे .नेता अपना नाम देखकर खुश हो गया , नौकरशाह अपनी " दूरदर्शिता " पर इठलाता रहा और जनता मोनो रेल में चढ़ने की चहक से उत्साहित होता रहा . लिख लीजिये ...यह घोषणा झारखण्ड के सन्दर्भ में तारे तोड़कर लाने जैसा है . आठ साल में अस्सी किलोमीटर का रिंग रोड बनाने में सरकार कुथने लगी है वह मोनोरेल की बात कहकर तीन करोड़ लोगो के साथ अभद्र मजाक नहीं कर रही है तो क्या ? . लेकिन घोषनाये करनी है तो कर दिया ..अपनी अंटी थोड़े खुल जाएगी  .. जनता सपने देखे नेता सुख  भोगे . 
   चेन्नई में मेरा भतीजा छः  साल पहले इंजीनियरिंग की पढाई  करने गया था . उसके सहपाठी उसे हाथोहाथ लेते थे क्योंकि उन्हें पता था कि वह महेंद्र सिंह धोनी के शहर और राज्य से आया है . लेकिन धोनी की महिमा पर झारखण्ड के नेताओ की कारगुजारिया भारी पड़ने लगी . लोग कहने लगे धोनी नहीं कोड़ा के प्रदेश से आया है .थोड़े ही समय में भतीजा अपने प्रति अपने सहपाठियों के बदले बर्ताव से हतप्रभ रह गया और यहाँ की व्यवस्था को कोसने लगा  . झारखण्ड के बारे में थोड़ी जानकारी रखने वाला जब पूछता है कि आपके कितने पूर्व मंत्री और मुख्यमंत्री जेल में हैं  ?, कितनी हिचक कितने संकोच और कितने शर्म से हम बताते हैं कि नहीं इतने नहीं इतने हैं ... 
  बहरहाल , बात घोषणाओ की हो रही थी .घोषणाओ का भी वर्गीकरण होगा . एक तो घोषणा किसने किया ..मुख्यमंत्री ने , मंत्री ने जनप्रतिनिधि ने या नौकरशाह ने . ? वर्गीकरण का दूसरा हिस्सा .. घोषणा वास्तव में जनहित का है या तोते उडाने वाला ..अगला हिस्सा ..घोषणा योजना के तहत है जरुरत के तहत ..गौर करेंगे जरुरत असीमित होते हैं ...योजना के लिए कोई ब्लू प्रिंट है ? योजना के लिए राशि केंद्र दे रहा है या राज्य सरकार को ही खर्चा करना है , संवेदक कौन है ,सलाहकार एजेंसी कौन है वगैरह वगैरह ...शर्ते और औपचारिकताये पूरी करते करते साल बीत जता है और योजना राशि भांड में चली जाती है . झारखण्ड के साथ जन्मे छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के राजधानी को देखने से यही लगता है कि हमारे पास दिखाने को ना सड़क है ना भवन ना इन्फ्रास्ट्रक्चर . राची के ह्रदय स्थल  पर रेंगती गाड़िया देखकर आपको लगेगा किसी ख्यात तीर्थस्थल की गन्दी और संकरी सडको पर चल रहे हैं . लोग कहते हैं झारखण्ड के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी गयी . लेकिन लगता है लड़ाई और लम्बी चलनी चाहिए थी . जब हम मानसिक और आर्थिक तौर पर परिपक्व हो जाते तब अलग राज्य बनता .
      2003 में नायडू के अफ़सोस पर मैंने मन ही मन उपहास किया था लेकिन आज लगता है कि हमारे भाग्य विधाता पिछले दस सालो से हमारा उपहास कर रहे हैं और हम कुंठित और नपुंसक बनकर परिहास का केंद्र बने हुए हैं . घोषणाओ को सुनकर , देखकर और पढ़कर लगता है कि हमने रफ़्तार पकड़ी है लेकिन हकीकत जानते ही लगता है पीछे से किसी ने खीच लिया है . एक कदम आगे बढाकर दो कदम पीछे हटने की कसक कब तक हम सहेंगे.???

जो तटस्थ है देना होगा उनको भी जवाब

 जो तटस्थ है देना होगा उनको भी जवाब 
                                                           
                                                       सन्दर्भ : म्यामार पर रांची में आतंक 

यह महज संयोग है कि रांची में जिस समय सड़को पर म्यांमार के मुद्दे पर आतंक मचाया जा रहा था ठीक उसी समय अमृतसर और दिल्ली में पाकिस्तान से दो सौ हिन्दू परिवार भागकर शरण लेने के लिए भारत पहुचे थे . बराबर की टीस दोनों तरफ थी लेकिन अधिक कसक तो पकिस्तान से आये शर्णार्थियो के लिए होगी क्योंकि पैंसठ साल पहले पकिस्तान और भारत एक ही थे . खून का सम्बन्ध है , ऐसे में पाकिस्तानी शरणार्थियो के प्रति दर्द होना स्वाभाविक ही नहीं लाजिमी भी है . यह दर्द सड़क पर नहीं उतरा दिलो में ही लोगो ने जज्बे को जब्त कर लिया . लेकिन म्यांमार से हमारा कोई सीधा संबंद नहीं है . वहां मौजूद रोहिंग्या मुसलमान आखिर कैसे मुसलमान हैं अधिक लोगो को पता तक नहीं . लेकिन उत्पात मचाना हो तो धर्म का हौव्वा खड़ा कर दो . जिस म्यांमार को लेकर रांची की सडको पर हंगामा हुआ उस म्यांमार की स्थिति जानना जरुरी है 
म्यामार में जुन महीने से ही आपातकाल लागू है , मिलिट्री का शासन है , म्यामार में बौद्ध धर्मावलम्बियों का बहुमत है . बौद्ध एक ऐसा समुदाय है जिसके धर्म में शुरुआत होती है अहिंसा से और अंत होता है अहिंसा से . शायद जैनियों के बाद सबसे अहिंसक समुदाय बौद्ध को माना जाता है . वहां चल रहे जातीय हिंसा का कारण क्या है इसके जड़ में जाने की भी हमें जरुरत नहीं लेकिन सच्चाई बताने के लिए म्यांमार के राष्ट्रपति ने विश्व के सबसे बड़े इस्लामिक संगठन जो सउदी अरब में स्थित है .ओर्गनिजेशन ऑफ़ इस्लामिक कोपरेशन यानि ओ आई सी के प्रतिनिधिमंडल को आमंत्रित किया है . एक जिद्दी और आपातकाल चला रहे राष्ट्रपति थिन सीन ने इतनी उदारता इसलिए नहीं दिखाई है कि वे आपातकाल के अपने फैसले को जायज ठहराना चाहते हैं , बल्कि उन्होंने दुनिया के सामने यह हकीकत जताने के लिए ओ आई सी को बुलाया है कि म्यांमार की हिंसा में कोई एक पक्षीय हिंसा नहीं है बल्कि बराबर के जिम्मेवार दोनों ओर से हैं इतना ही नहीं दंगा प्रभावित इलाको में मुस्लिम बाहुल्य राष्ट्र टर्की के विदेश मंत्री को घुमाया गया और सरकार ने ही दुनिया को सच्चाई बताने का आग्रह किया . गौरतलब है कि रोहिंग्या मुसलमान बर्मा में अवैध रूप से घुसपैठ किये लोग हैं यह म्यांमार की सरकार भी मानती है . 
म्यांमार का यह सन्दर्भ इसलिए जाहिर करना जरुरी था क्योंकि रांची और जमशेदपुर की सडको पर जिन लोगो ने म्यांमार के मुद्दे पर उत्पात मचाया वे जाने कि म्यांमार में आखिर मामला क्या है . अगर मामला है भी तो क्या इसके लिए हिंदुस्तान में अपने ही घर के लोगो को मारपीट करना तोड़फोड़ करना जायज है सिर्फ इसलिए कि वे दूसरे धर्म के हैं . आफत आएगी तो क्या म्यांमार के रोहिंग्या उनकी मदद करेंगे .जैसा कि रांची में उत्पात मचाते समय दो मुस्लिम बच्चो को अपनी हिफाजत में लेकर एक सिख ने घर तक भेजवाया . 
अब इस घटना पर मुस्लिम समुदाय के बुद्धिजीवी और धर्माधिकारी अखबारों में बयान देकर अपना पिंड छुड़ा लेते हैं कि चन्द शरारती तत्वों के कारण ऐसा हुआ . लेकिन इसके लिए ना कभी सड़क पर उतर कर ऐसे तत्वों का विरोध करते हैं ना सदभाव बनाने के लिए . हिम्मत तो दिखाई पकिस्तान के एक अटोर्नी जनरल ने . उन्होंने पश्चाताप के लिए अमृतसर में लोगो के जूते साफ़ किये . इसके कारण उनकी नौकरी भी जाती रही लेकिन अपने यहाँ के रहनुमा अखबारी बयान से आगे नहीं बढ़ते . बाकी समय तो नेतृत्व करने का दंभ भरते हैं लेकिन एन मौके पर दुबक जाते हैं . और ऐसी हिंसा ऐसे ही रहनुमाओ के तटस्थ रहने का कारण होता है . और वह भी कम अपराध नहीं जो तटस्थ रह जाता है . 
दुनिया में जो हो रहा है उससे हमारा सरोकार होना लाजिमी है लेकिन बिना विवेक के उसपर एक्शन लेना मुर्खता है . दिक्कत तो यह है कि मुस्लिमो के अधिकांश रहनुमा हर चीज को या तो वोट की नजर से देखते हैं या धार्मिक नजर से . इसलिए उनकी जुबान भी उसी हिसाब से निकलती है . सूरत ब्लास्ट में आरोपी रांची का एक बाशिंदा दानिश गिरफ्तार हुआ तो उसने मंजर इमाम नामक अपने साथी का नाम भी बताया . पुलिस मंजर को आजतक गिरफ्तार नहीं कर पाई है . कारण यह है कि घरवाले मोहल्लेवाले पुलिस को खदेड़ देते है . जाहिर है इन्हें ना देश की पुलिस पर ना अदालत पर ना दानिश जैसे इनके ही दोस्तों पर भरोसा है . इन्हें समझाने के लिए कौम के बुद्धिजीवी सामने नहीं आते जिससे दूसरे पक्ष का ऐश्वास बढ़ता है . 
बहरहाल तफसील में ना जाकर एक लाइन में यह कहा जाये कि म्यांमार उर्फ़ बर्मा में जो हुआ उसके लिए रांची और जमशेदपुर में आतंक खड़ा करना निहायत ही बेतुका बचकाना और अपराधिक हरकत है , और इसका विरोध बुद्धिजीवी सड़क पर नहीं करे यह और भी खतरनाक .
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कसाब को फांसी ! चोरी चोरी , चुपके चुपके क्यों


कसाब को फांसी !  चोरी चोरी , चुपके चुपके क्यों ?

    सुबह सुबह खुशखबरी मिलना पूरे दिन के लिए सुखदायक होता है . खुशखबरी अगर राष्ट्रव्यापी हो तो और भी बेहतर . आमिर अजमल कसाब को फांसी दिए जाने की खबर से लोग झूम उठे सिवाय मानवाधिकार के परचमदारो के . जिनकी आड़ में राष्ट्रविरोधी तत्व इस फांसी को गलत बता सके . यह अप्रत्याशित ख़ुशी सामूहिक उत्सव में भी तब्दील हो सकता था अगर कसाब की फांसी की सजा को सार्वजानिक तारीख तय करके अमल में लाया जाता . चुपके चुपके चोरी चोरी जो किया गया भले सही है लेकिन इसके कारण जैसा जश्न देश के लोग मनाने की फ़िराक में थे उससे महरूम हो गए . 
  लेकिन तीन वजहें ऐसी हैं जिसके कारण केंद्र सरकार  ने आनन् फानन में इसे अमली जमा पहनाया . सबसे पहली बात ..26/11 के इस एकलौते जिन्दा पकडे गए आरोपी को लेकर पूरे देश में गुस्सा था . न्यायिक प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी .राष्ट्रपति ने भी दया याचिका ख़ारिज कर दी थी . ऐसे में इसपर देरी करने का कोई ख़ास कारण दिख नहीं रहा था . 26/11 के ठीक चार दिन पहले फांसी देकर सरकार फिर से लोगो में उमड़ने वाले गुस्से को झेलना नहीं चाहती थी . जाहिर सी बात है की 26 /11 की बरसी पर लोग फिर एक बार कसाब की फांसी में हो रही देरी के लिए केंद्र सरकार को लताड़ते .घोटाले और आर्थिक नाकामियों को झेल रही सरकार इस प्रहार को झेलना नहीं चाहती थी वरना अफजल गुरु को पहले फांसी की बारी रहते हुए कसाब को कैसे पहले फांसी दी गयी . अफजल को लेकर देश में  एक वर्ग के लोग बंटे हुए है और अफजल को फांसी देने का विरोध कर रहे हैं . सरकार इस विवाद से बचते हुए कसाब को फांसी देकर सारा क्रेडिट लेने की कोशिश कर रही है . यह भी संभव है कि कसाब की फांसी को लेकर उसके वकील कोई कानूनी पक्ष का हवाला देकर फिर से फांसी की सजा को रोकने की अर्जी न दे देते और उसके कारण यह फांसी कुछ दिन और टल जाती . 
     दूसरी वजह , इसे गौर से समझिये ..तीन दिन पहले संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव आया है जिसमे फांसी की सजा को ख़तम करने का प्रस्ताव है .प्रस्ताव का ड्राफ्ट पिछले महीने ही तैयार हुआ था जबकि राष्ट्रपति ने 5 नवम्बर को दया याचिका ठुकराया था और आठ नवम्बर को फांसी की सजा की तारीख  तय की गयी थी . इस प्रस्ताव के समर्थन में 110 देशो ने हामी भरी है जबकि लगभग 40 देशो ने इसका विरोध किया है ,  चालीस देशो में भारत भी है जिसने फांसी की सजा पर रोक लगाये जाने का विरोध किया है कुछ देशो ने अपनी राय अभी तक नहीं दी है , अगर संयुक्त राष्ट्र में फांसी पर रोक का प्रस्ताव मंजूर हो जाता है तो संयुक्त राष्ट्र का सदस्य होने के नाते इसपर अमल करना होगा और सभी न्यायिक अवरोध पार कर फांसी की सजा पा चुके कसाब को इससे मुक्ति पा  जाना देश के लिए शर्मनाक होता . सरकार ने इसलिए आनन् फानन में ऐसा फैसला लिया है . अगर यह प्रचारित हो जाता तो संभव है कि संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश इसे मुद्दा बनाते .ऐसे अंतरराष्ट्रीय दुविधा में फंसने के बजाय सरकार ने सारा क्रेडिट खुद लेने की पहल की . 
   तीसरा कारण गुजरात चुनाव है . शिव सेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे के निधन के बाद नरेंद्र मोदी को हिंदुत्व का सबसे बड़ा सरमायादार माना जाने लगा है . गुजरात का चुनाव केवल गुजरात नहीं बल्कि देश के अगले आम चुनाव का रास्ता बनाएगा . मोदी अगर जीतते हैं तो कांग्रेस के लिए वे सबसे बड़ी चुनौती होंगे . कसाब को लेकर उनकी टिप्पणिया कांग्रेस को हमेशा से शर्मिंदा करती रही है . अगर प्रचार करके कसाब को फांसी दी जाती तो मोदी और बीजेपी इसका श्रेय या तो खुद लेते या जनता के दबाव में लिया गया फैसला कहकर कांग्रेस के हाथो से यह क्रेडिट छीन लेते . 
  बहरहाल कसाब को फांसी मिल गयी लेकिन सवाल भी कई खड़े हो गए हैं . अफजल गुरु को लेकर सरकार का क्या रवैया होगा ? कहीं कसाब को फांसी देने से पाकिस्तान में बंद सरबजीत की रिहाई का मामला तो नहीं उलझ जायेगा . मानवाधिकार संगठनों के हाँव हाँव का जवाब कैसे दिया जायेगा 

इतने भी बेशर्म नहीं बनिए जनाब / हमें पता है हकीक़त


इतने भी बेशर्म नहीं बनिए जनाब / हमें पता है हकीक़त 

   अकिलुर रहमान को पचीस साल से तो जानता ही हूँ , पहले सोचता था यह बन्दा बहुत अधिक महत्वाकांक्षी नहीं है , या तो शगल वश या छोटे मोटे  रोजगार के लिए राजनीति  करता है . लेकिन अचानक सिटी पैलेस से बरामद बाईस लाख रूपये पर उन्होंने अपना दावा पेश किया तो लगा कि इतने बेशर्म होकर राजनीति करने से तो बेहतर है चौराहे पर तेल बेचे . कानून और लोकतंत्र की जिस तरह ऐसी की तैसी की जा रही है उससे तो बेहतर है कि वोट ही न डाला जाये या नक्सलियो की तरह वोट का सक्रिय रूप से बहिष्कार किया जाये . 
 इतनी बेशर्मी से मामले को लेना किसी पार्टी के लिए हिम्मत की बात होगी . कांग्रेस ने जता दिया की उनके लिए कानून से बचने का रास्ता पखाने की टंकी से भी होकर जाये तो वह परिहार्य है . राज्य में परोक्ष रूप से उनका ही शासन है , जाहिर है ब्यूरोक्रेट भी उनके ही खादिम होंगे . सिटी पैलेस में बाईस लाख रूपये की सच्चाई जब अधिकारियो से निगली नहीं जा सकी होगी तभी उसे इतना गंभीर मामला बनाया गया जिसकी हद में पूर्व मेयर से लेकर सुबोधकांत सहाय और शर्मा साहू जैसी छोटी मछलियाँ फंसी . मीडिया वालो के दनदनाते चमकते कैमरों के बीच कोई भी अधिकारी देखकर मक्खी नहीं निगल सकता था , इसलिए प्राथमिकी में कड़ी कड़ी बातें लिखी गयी . शर्मा साहू तो जेल चले गए पर बाकी के सर पर तलवार लटक गयी है . पांच दिनों के बाद इस चुनावी सरगर्मी से निहायत ही अलग रहे अकिल सामने आ गए . अकिल की अकल मारी गयी या अक्ल पर अपने राजनैतिक विधाताओं की सुरक्षा भारी पड़ी कि अकिलुर रहमान ने पुलिस , आयकर विभाग , चुनाव आयोग , कांग्रेस पार्टी के विरोधी धड़े और तमाम नैतिक मानदंडो को लात मरकर पैसे पर अपना दावा पेश कर दिया .
 अकिलुर रहमान की इतनी औकात हो गयी कि पार्षद चुनाव में अकेले बाईस लाख रूपये चंदा करके जुगाड़ कर ले तो उन्हें सांसद का चुनाव लड़ा देना चाहिए . हारे या जीते उससे मतलब नहीं सौ दो सौ करोड़ रूपये तो वे चंदे से ही उगाही कर लेंगे . 
 यह मामला इतना आसान नहीं है जनाब ! बेशर्मी ही दिखानी हो तो अलग बात . वरना ये अकिलुर रहमान बताएँगे कि उन्ही की पार्टी के दो सदस्य शर्मा और साहू ने जो बयां दिया है वह गलत है ?. इतना पैसा एक होटल में किसके भरोसे छोड़ के छः दिनों तक अन्तः पुर में सोये पड़े थे अकिल . किससे किससे पैसे लिए थे इसकी रसीद तो शायद अकिलुर रहमान काटना शुरू कर दिए होंगे लेकिन उनके ही अध्यक्ष कह रहे हैं कि पार्टी ने कोई चंदा नहीं मांगा  है . इतना सारा पैसा जहाँ रखा गया था वहाँ कांग्रेस के बाकी लोग तो थे लेकिन चंदे के सरताज अकिलुर रहमान वहां  नहीं थे ...सवाल तो तमाम हैं . थोडा भी जागरूक व्यक्ति समझ सकता है कि पूरे प्रकरण में अकिलुर रहमान के अचानक अवतरण जाच को बाधित करना और खादिम का खिदमत करने का कर्तव्य निर्वहन करना भर है . देश के कानून , देश की अदालत , चुनाव आयोग , चुनाव प्रक्रिया , मतदाता , आम जनता , पुलिस प्रशासन पर थोडा बहुटी  ही सही लोगो को भरोसा  और विश्वास है , उसके साथ खिलवाड़ करना कितना गलत है .
  निकाय चुनाव में मैंने वोट नहीं डाला , इसे लेकर तीस साल पुराने साथी ने मुझे फेसबुक पर सार्वजानिक गली गलौज की , मैंने भी गुस्से में उनसे बात करना बंद कर दिया है . जिस देश में लोकतंत्र के इस प्रक्रिया के लिए इतना गहरा लगाव और संवेदना हो वहां नेताओं की ऐसी चिरकुटई बर्दाश्त से बाहर की चीज है . क्या हम इन नेताओं के खिलाफ बन्दूक नहीं थाम ले ? या फिर पुलिस ही उनके छाती पर बन्दूक नहीं तान दे ?
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गाँधी को लोप करते उनके ही वाशिंदे

                                      गाँधी को लोप करते उनके ही वाशिंदे              
           गाँधी जयंती के बाद गाँधी की चर्चा किया जाना शायद अप्रासंगिक लगे लेकिन यह चर्चा पहले करना मुनासिब इसलिए नहीं लगा क्योंकि गाँधी के कुछ अंध भक्त , गाँधी के नाम को ब्रांड की तरह इस्तेमाल करने वाले कुछ राजनीतिक संगठन, गाँधी के सिद्धांतो को अपरिवर्तनशील ,जड़ तथा अप्रगतिशील समझनेवाले बुद्धिजीवी और गाँधी के नाम पर अपना बाजार चला रहे एन जी ओ गाँधी जयंती के मौके पर बने माहौल में उन्मत्त और बौखलाकर बिफर पड़ते . फिर उनके अतार्किक बातो और पूर्वाग्रह से ग्रस्त तकरीरो का  एक साथ जवाब देना मुश्किल होता .यह वर्ग दरअसल गाँधी जी के बारे में कुछ स्थापित आदर्शो के अलावा कुछ सुनने को तैयार भी नहीं होता है क्योंकि गाँधी के नाम को लेकर वे लाभुको की श्रेणी में आते हैं .  
              गांधीजी को उनके ही लोग मार्क्स ,माओ , लेनिन जैसे विचारको की श्रेणी में लाने को बेकरार हैं . इन वाम विचारको के सिद्धांतो को जड़ बनाकर रखा गया इसलिए रूस का बिखराव हुआ , चीन ने माओ और लेनिन के सिद्धांतो को ताक पर रख दिया है तभी विकास की दौड़ में वह अमेरिका जैसे देशो को पानी पिला रहा है . उन्हें लगा कि इन विचारो का सार्वजनीन , सार्वभौमिक और सर्वकालिक अहमियत तभी है जब उन सिद्धांतो में ठहराव न हो ,लोच हो और देश काल पात्र के अनुसार ग्राह्य हो .गाँधी के विरासत तुषार गाँधी अकेले नहीं हो सकते ,लेकिन मंचो पर और टीवी चैनलों में जिस तरह गांधीजी को आम आदमी से दूर बताते फिर रहे हैं वह गाँधी जी की उनके ही सिद्धांत  अश्पृश्यता के विरोध  के खिलाफ है . महाबीर और बुद्ध ने परम अहिंसा के सिद्धांतो की स्थापना की थी ,गांधीजी ने जरूरत के मुताबिक उसे ही आगे बढाया . क्या साठ सालों के बाद भी अहिंसा के वहीसिद्धांत हु ब हु प्रासंगिक हैं ? अन्ना हजारे ने अहिंसा के उन्ही सिद्धांतो पर थोडा बदलाव करते हुए अनशन किया तो बहुत से लोग बिफर गए ...गाँधी से अन्ना की तुलना न हो , अन्ना का आन्दोलन गलत है , वगैरह वगैरह ..  गाँधी के विचारो पर विचार क्या करिए कि तलवारे तान लेते हैं उनके अनुयायी . गाँधी का अहिंसा क्या यही है ?
             कोई भी मनुष्य पूर्ण नहीं होता है . गाँधी जी भी मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं थे इसलिए समग्रता में उनसे भी तमाम गलतिय हुई होंगी , नाथूराम गोडसे से लेकर ओशो रजनीश  तक ने समझाने  कोशिश की कि गाँधी को हमारे बीच  का ही इन्सान बनकर रहने दो . गोडसे बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसने जघन्य फैसला ले लिया . गोडसे के साहित्य में कही उसकी स्वीकारोक्ति भी लिखी है . गोडसे ने कहा कि वह गांधीजी की बड़ी इज्जत करता था लेकिन गांधीजी की  जिद और हठधर्मी ने सैकड़ो लोगो को अपने विचारो को कुचलने को बाध्य होना पड़ा .गाँधी अड़े थे कि मेरी बात मानो नहीं तो मै जान दे दूंगा .लोग गाँधी से बेपनाह प्यार करते थे  लोगो  ने उनकी बात मानी लेकिन गोडसे को बर्दाश्त नहीं हुआ कि गाँधी मनमानी करे .........
             आज गांधीजी के विचारो को उनके सिद्धांतो को उनके लोग उनके अनुयायी और गाँधीवादी लोग तथा संगठन उतना ही जड़ , अप्रगतिशील और इसी वजह से अव्यवहारिक बनाने पर तुले हैं . कोई भी परंपरा ,नियम और रिवाज सर्व व्यापी नहीं होता .देश, काल और पात्र के हिसाब से वह बदलता और संशोधित होता रहता है  इसे खुले दिल से स्वीकार करना होगा तभी गांधीजी के सिद्धांत काल जयी और पासंगिक बने रह सकते हैं . खुद गांधीजी भी अपने बर्ताव में परिवर्तन लाते रहे जो जरूरत के हिसाब से अनुकूल थे .गांधीजी के जीवन के उन अध्यायों की हम चर्चा ही नहीं करते , उन विषयो पर हम मंथन ही नहीं करते या उन संदर्भो की ओर देखना ही नहीं चाहते जो गाँधी जी को पूर्णता देते हैं .अगर गांधीजी के मानवीय पहलुओ पर हम चर्चा करने को तैयार हो गांधीजी एक पारदर्शी व्यक्तित्व के रूप में उभरेंगे वरना गांधीजी के कई पहलू संदेह और विकार ही  पैदा करेंगे . प्रसंगवश यह ध्यातव्य है कि अगर हिन्दुओ के देवताओ की चर्चा होती है तो भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम तो कहा जाता है लेकिन कृष्ण को सम्पूर्ण व्यक्तित्व का प्रतीक कहा जाता है . कृष्ण ने जरूरत पड़ी तो लड़ाई भी लड़ी , चोरी भी की ,दुसरो का उपहास भी उड़ाया लेकिन समग्रता में उन्हें हर कला का माहिर माना गया  आज गांधीजी को लेकर यही समस्या है कि हम उनके सिद्धांतो को लेकर लकीर के फ़कीर की तरह बन गए हैं . गांधीजी को हमने  लोगो से इतना ऊपर बैठा दिया हैं कि लगता है कि उनके नियम और सिद्धांत का  पालन बिना सन्यस्त हुए किया नहीं जा सकता . इसलिए गाँधी हमसे दूर होते जा रहे हैं