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Thursday, September 18, 2014

CM V/S CS

चौदह सालो में पहली बार झारखण्ड का मुख्य सचिव झारखंडी हुआ।  यह केवल खतियानी झारखंडी नहीं है बल्कि झारखंडी अस्मिता का प्रतीक भी बनकर उभरा है। झक्की ,पागल ,मस्त ,बिंदास जैसे उपमाओं से जाने जाने वाले सजल चक्रवर्ती ने मुख्य सचिव का पद सँभालते ही अभिजात्य बाबुओ का चोला  उतार फेंका। लोकल भाषा में लोगो के दिलो तक उतरने के लिए एक भारी भरकम शरीर के साथ जनता से सीधे संवाद करने लगा। 1987 की एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। किसी बात को लेकर रांची में दो समुदायों में तनाव हो गया था। सजल सजल चक्रवर्ती तब रांची के उपायुक्त थे।  रांची के एस एस पी शायद कोई नारायण थे , सजल गली गली पैदल घप्पम्ने निकल गए और स्थानीय भाषा में बोलने लगे , " का बॉस कहेला अपने अपने लड़ाई कर रह हिहिं " तब उपायुक्त का रौब हुआ करता था।  उपयुक्त को घर घर घुमते देख सभी को लगा कि अपना हितैषी आ गया घंटे दो घंटे में भारी तनाव ख़त्म हो गया।  
वही सजल अब मुख्य सचिव हैं। और उसी स्टाइल में प्रदेश को साधने की कोशिश कर रहे हैं। चारा घोटाले में काफी दिनों तक सस्पेंड रहने वाले सजल चक्रवर्ती अपनी जमीं को जमीन माफियाओ से मुक्त कराने के लिए सिमलिया रिंग रोड के पास धरना पर भी अकेले बैठे थे। बन्दर बिल्ली कुत्ता पालने वाले सजल निहायत ही झारखंडी दिल दिमाग रखते हैं। तभी तो 1990 के आसपास पत्रकारों के धरना में भी बहैसियत उपायुक्त खुद भी धरने पर बैठ जाते थे। बाबूगिरी करना सीखा ही नहीं। यही वजह है कि सी एम से अधिक राज्य में सी एस पॉपुलर है। कद काठी , बोल चाल और व्यव्हार से सजल चक्रवर्ती सबसे अलग हैं। नब्बे के दशक के बाद मेरी न कोई पहचान उनसे रही न सम्बन्ध।  लेकिन मुख्य सचिव की हैसियत से जब रात रात भर वे अस्पतालों और प्रखंडो का दौरा करने लगे तो मुझे उस नब्बे के झारखंडी उपायुक्त की याद आ गयी। सजल तो हीरा है हीरा। ऐसे हीरा अधिकारी की दो विधायको से बकबक / गाली गलौज / बहस /दुर्व्यवहार समझ से परे है।  लेकिन विधायको की बाद की हरकत और बयानबाजी देखे सुने तो आप खुद कहेंगे " ऐसे चिरकुट नेता और मंत्रियो से तो बेहतर है झारखंडी नौकरशाह ".  . इन विधायको को चिरकुट कहना शायद अपमानजनक शब्द या असंसदीय भी हो लेकिन क्या यह सही नहीं है कि अकील अख्तर खुद से हुए दुर्व्यवहार को " अल्पसंख्यको का अपमान " घोषित कर रहे हैं। राज्य के सभी अल्पसंख्यको का उन्होंने ठेका ले रखा है क्या ? क्या उनके चाल चलन उनकी हरकते , पूरे अल्पसंख्यक समुदाय का माना जायेगा ? इसके बाद इन विधायको का धरना देना क्या दिखता है ? सजल की गलती यही थी कि तीन बजे की मीटिंग में वे देर से पहुंचे। देर भी इसलिए हुई क्योंकि राज्य के महाधिवक्ता के साथ वे बैठक कर रहे थे।  कोई क्लब में राग रंग नहीं कर रहे थे। यही विधायक किसी सार्वजानिक कार्यक्रम में समय पर पहुचना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. अगर  अख्तर इसे अल्पसंख्यको का अपमान समझते हैं तो गैर अल्पसंख्यक विधायक ऐसी हालत में बहुसंख्यको की भावना का सहारा लेंगे।  ऐसे फिरकापरस्त विधायको को सजल चक्रवर्ती ने कम करके ही आँका।  कोई ढीठ झारखंडी होता तो ऐसे व्यव्हार पर शायद लप्पड़ थप्पड़ भी कर देता। 
 झारखण्ड के नेताओ मंत्रियो की शिकायत रही है कि यहाँ के नौकरशाह बेलगाम हैं।  वे झारखंडी मानसिकता की दुहाई देकर नौकरशाहों को कोसते रहे हैं।  लेकिन झारखण्ड का जर्रा जर्रा जानता है कि राज्य के विधायको , मंत्रियो और नेताओ ने चौदह सालो में जो लूट मचाई उसका प्रत्यक्ष प्रमाण होटवार का बिरसा मुंडा जेल और परोक्ष प्रमाण राज्य के गरीब वंचित जनता की आह है।  जब ये लोग इज्जत  प्रतिष्ठा और सम्मान की बात करते हैं तो सजल दा की तरह ही " गेट आउट " कहने का दिल करता है। झारखण्ड के नेताओ की विश्वसनीयता क्या है यह दो दिन पहले हुए मेयर चुनाव में ही दिखा , जब मात्र १८ फीसदी लोग वोट डालने निकले।  लोकसभा  चुनाव में  देश के नेताओ की विश्वसनीयता के मुकाबले झारखंडी नेताओ की विश्वसनीयता बाबाजी का ठुल्लु जैसा है। यही कारण है कि मेयर चुनाव में लोग घर पर मस्ती करते रहे। विधानसभा में बैठे विधायक भी कमोबेश ऐसे ही हैं इसलिए सजल दा की झिड़की सुनने में प्यारी लगी। 

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