भाई साहब हमें निराश न कीजिये !!
सबसे पहले तो २८ साल की यात्रा के लिए बधाई !! इस दौरान कितने अखबार आये और गए लेकिन आप पल्लवित होते रहे . अगर आप सहित रांची के कुछ अन्य अखबारों को देखे तो जो गेट -अप या जो कंटेंट झारखण्ड के अखबारों में है वह देश के शीर्ष हिंदी राष्ट्रीय अखबारों में भी नहीं . निश्चित रूप से इस रस्ते को दिखाने और उस उंचाइयो को पकड़ने वाले आप अग्रणी हैं . पत्रकारीय परिवेश बनाने और पाठको को मानसिक रूप से पक्व बनाने में आप लोगो का सराहनीय योगदान रहा है . मुझे याद है कि कभी रांची के अखबार संग्रहणीय अंक का हवाला देकर राष्ट्रीय पर्वो और अपने स्थापना दिवस पर मोटे मोटे अखबार निकालते थे . पत्रकार यह देखता था कि उनके अखबार के पृष्ठों की संख्या कितनी है .विज्ञापन और उलजलूल आलेखों से भरा यह संग्रहणीय अंक रद्दीवाले के लिए जिज्ञासा का सबब बनता था लेकिन अब एक माहौल बना है हम उसे ही पढ़ते हैं जिसे पढना चाहिए . इसीलिए आपके सफ़र के इस पड़ाव पर प्रभात विमर्श पढ़कर सीधे प्रतिक्रिया देने के लिए बैठ गया , बिना नित्य कर्म किये .हमेशा की तरह उम्मीद नहीं है कि यह आपके अखबार में छपने योग्य है लेकिन प्रतिक्रिया देने का जज्बा भी आपके अखबार ने ही पैदा किया है इसलिए कम से कम आपतक हाजिरी तो बना दी जाये .
बड़े बड़े नामो ने प्रभात विमर्श में जो राय जारी किये हैं उससे मै बिलकुल ही इत्तफाक नहीं रखता हूँ . इन सभी वरिष्ठ और नामचीन पत्रकारों ने एक सुर से पत्रकारिता के गिरते स्तर और व्यावसायिकता के हाथो गिरवी पत्रकारीय मिशन पर चिंता जाहिर की है .. हरिवंश राय बच्चन की चार लाइनों से अपनी बात शुरू करता हूँ ..बच्चन जी ने मधुशाला में लिखा है ."..अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला . अपने युग में सबको अद्भुत ज्ञात हुआ अपना प्याला , फिर भी वृद्धो से जब यह पूछा एक यही उत्तर पाया .. अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला ..." जाहिर है मानव स्वभाव एक ही प्रकाश पुंज के आसपास घूमने का अभ्यस्त है इसलिए दूसरे ( काल ) प्रकाशपुंज में उन्हें खोट ही खोट नजर आती है . प्रभात विमर्श में अधिकांश बड़े पत्रकार निराश दिखे . उन्हें हाल के पत्रकारों और पत्रकारिता पर अधिक विश्वास नहीं दिखा . सत्ता से संबंधो पर ऐतराज दिखा और कमार्शियालिजेशन पर घोर आपत्ति दिखी . मै छोटा और अकिंचन पत्रकार जो महज चौबीस सालों से पत्रकारिता कर रहा हो इनके चिंता पर सवाल खड़ा करे यह अच्छा नहीं लगता लेकिन मुझे लगता है कि इनकी चिन्ताओ से विरोध होना चाहिए . इसलिए कि हम डेमोक्रेसी में जी रहे हैं और आनेवाली पीढियों को निराश नहीं होने देना चाहिए ..
हम तमाम तर्क दे ले लेकिन अगर देश दुनिया को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले तत्व हैं तो राजनीति और राजनीतिग्य . संविधान की व्यवस्था के तहत हम अदालती मामलो में ज्यादा दखल नहीं दे सकते वैसी हालत में कार्यपालिका और विधायिका ही दो ऐसे क्षेत्र हैं जो आम जनजीवन को गहरे तक असर करती है . और विधायिका तो कार्यपालिका को निर्देशित करता है . यह इस देश का सौभाग्य है कि विधायिका और कार्यपालिका के खिलाफ लिखने की छूट हमें हासिल है जिस कारण पत्रकारिता और पत्रकार इनके इर्द गिर्द घूमता रहता है . यह बुरा भी नहीं है क्योंकि इनकी मौजूदगी बहुत हद तक कार्यपालिका और विधायिका की निरंकुशता और भ्रष्ट आचारण पर नकेल कसे होती है ..और जिस बात पर हमारे वरिष्ठ पत्रकारों ने चिंता जाहिर की है (पत्रकार और सत्ता का गठजोड़ ) . उसमे कितने फीसदी पत्रकार लिप्त हैं ? शायद पांच फीसदी तक .. क्या किसी भी समाज के लिए इतना छोटा सा प्रतिशत को ग्रांट में नहीं लिया जा सकता . जब हर क्षेत्र में हर वर्ग में मूल्यों का ह्रास हो रहा है तो उसी मानवीय गुणों को लेकर तो पत्रकारिता करने कुछ पांच फीसदी पत्रकार भी जुड़ जाते हैं . इन्हें लेकर ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं . पत्रकार चौबीस घंटे काम करता है लेकिन वेतन एक ही शिफ्ट का लेता है यानि आज भी पत्रकार एक तिहाई वेतन पर काम कर रहे हैं ,इसके बाद भी उनकी कार्य क्षमता और नीयत पर सवाल खड़ा करना गलत होगा सत्ता के साथ नजदीकी होना उनका व्यवसाय गत मजबूरी भी है . और ऐसे पत्रकारों पर बड़ी आसानी से सवाल खड़े किये जाते हैं . किसी के खिलाफ में खबर छापी तो आरोप लग जायेगा विपक्ष ने प्लांट किया है या पैसा नहीं मिला इसलिए ऐसी खबर छापी , किसी के पक्ष में छापा तो तोहमत लगेगा कि बिक गया पत्रकार . इसलिए तलवार के दोधार पर पत्रकार होता है
अब रही व्यावसायिकता की बात ...बदलती व्यवस्था और बदलते दुनिया का यह सच है ..आज हम कई नामी अखबार और पत्रिका से इसलिए महरूम हो गए क्योंकि उन्होंने आहट को पहचाना नहीं . रांची और झारखण्ड में दो रूपये और एक रूपये में अखबार बिकते हैं . महंगाई और व्यावसायिकता के इस दौर में यह निहायत मजाक नहीं लगता है ,?लेकिन यह सच्चाई है . आज झारखण्ड के धुर देहात में जाये, वहां भी अखबार पढने को मिल जायेगा . सूचना का इतने गहरे तक पहुच व्यावसायिकता की दौड़ में भी कैसे संभव हुआ इसपर भी वरिष्ठ पत्रकारों ने सोचा है ?. महज विज्ञापन के भरोसे चलने वाले इन अखबारों ने पाठको को दो रुपया में अखबार पढ़ा दिया इसकी वजह है व्यावसायिक मैनेजमेंट . लेकिन इस विधा में भी हमने पत्रकारिता के मिशन मोटो को छोड़ा नहीं है .प्रतिस्पर्धा आयी तो खुलापन आया .अगर किसी खबर को एक संस्था दबाता है तो दूसरा उस खबर की बखिया उधेड़ देता है . पाठक निश्चिन्त है यहाँ नहीं तो वहा होगा .. समाचार सूत्र पत्रकारों को धमकाता है कि अगर मेरी खबर नहीं छापियेगा तो दूसरे अखबार को दे दूंगा . यह सकारात्मक परिवर्तन के हम साक्षी नहीं है क्या ?
आज अखबारी संस्था केवल सूचना नहीं पंहुचा रहा है ,सामाजिक सरोकारों से भी सीधे जुड़ा है . सेमिनार , बैठके जन जागरूकता अभियान कैम्पेन अखबारों के अभिन्न हिस्से हो गए है . भले इसका एक कारण प्रचार पाना और व्यावसायिक लाभ पाना हो लेकिन इसके साथ ही समाज का भला हो रहा है इसे क्यों नजर अंदाज किया जा रहा है ?
और अंत में सबसे महत्त्व पूर्ण बात . जिन बड़े पत्रकारों ने थोक के भाव विमर्श में पत्रकारिता पर कलम चलाकर खेद जताया है उन्होंने पत्रकारिता के शत प्रतिशत शुचिता के कोई अभियान चलाया क्यों नहीं ? या केवल सवाल खड़े करनेकी जिमेवारी भर है उनकी जवाबदारी के लिए कौन सामने आएगा .
एक बात के लिए और धन्यवाद देता हूँ . क्षेत्रीय पत्रकारिता को भाषाई पत्रकारिता कहने का न जाने कब से चलन चला हुआ है . मुझे इसपर ऐतराज है . भाषाई कहकर हम अख़बार के व्यापक संदर्भो को सीमित कर देते हैं .आपने इस पारंपरिक मोहजा को छोड़ा ..शुक्रिया !!!
सबसे पहले तो २८ साल की यात्रा के लिए बधाई !! इस दौरान कितने अखबार आये और गए लेकिन आप पल्लवित होते रहे . अगर आप सहित रांची के कुछ अन्य अखबारों को देखे तो जो गेट -अप या जो कंटेंट झारखण्ड के अखबारों में है वह देश के शीर्ष हिंदी राष्ट्रीय अखबारों में भी नहीं . निश्चित रूप से इस रस्ते को दिखाने और उस उंचाइयो को पकड़ने वाले आप अग्रणी हैं . पत्रकारीय परिवेश बनाने और पाठको को मानसिक रूप से पक्व बनाने में आप लोगो का सराहनीय योगदान रहा है . मुझे याद है कि कभी रांची के अखबार संग्रहणीय अंक का हवाला देकर राष्ट्रीय पर्वो और अपने स्थापना दिवस पर मोटे मोटे अखबार निकालते थे . पत्रकार यह देखता था कि उनके अखबार के पृष्ठों की संख्या कितनी है .विज्ञापन और उलजलूल आलेखों से भरा यह संग्रहणीय अंक रद्दीवाले के लिए जिज्ञासा का सबब बनता था लेकिन अब एक माहौल बना है हम उसे ही पढ़ते हैं जिसे पढना चाहिए . इसीलिए आपके सफ़र के इस पड़ाव पर प्रभात विमर्श पढ़कर सीधे प्रतिक्रिया देने के लिए बैठ गया , बिना नित्य कर्म किये .हमेशा की तरह उम्मीद नहीं है कि यह आपके अखबार में छपने योग्य है लेकिन प्रतिक्रिया देने का जज्बा भी आपके अखबार ने ही पैदा किया है इसलिए कम से कम आपतक हाजिरी तो बना दी जाये .
बड़े बड़े नामो ने प्रभात विमर्श में जो राय जारी किये हैं उससे मै बिलकुल ही इत्तफाक नहीं रखता हूँ . इन सभी वरिष्ठ और नामचीन पत्रकारों ने एक सुर से पत्रकारिता के गिरते स्तर और व्यावसायिकता के हाथो गिरवी पत्रकारीय मिशन पर चिंता जाहिर की है .. हरिवंश राय बच्चन की चार लाइनों से अपनी बात शुरू करता हूँ ..बच्चन जी ने मधुशाला में लिखा है ."..अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला . अपने युग में सबको अद्भुत ज्ञात हुआ अपना प्याला , फिर भी वृद्धो से जब यह पूछा एक यही उत्तर पाया .. अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला ..." जाहिर है मानव स्वभाव एक ही प्रकाश पुंज के आसपास घूमने का अभ्यस्त है इसलिए दूसरे ( काल ) प्रकाशपुंज में उन्हें खोट ही खोट नजर आती है . प्रभात विमर्श में अधिकांश बड़े पत्रकार निराश दिखे . उन्हें हाल के पत्रकारों और पत्रकारिता पर अधिक विश्वास नहीं दिखा . सत्ता से संबंधो पर ऐतराज दिखा और कमार्शियालिजेशन पर घोर आपत्ति दिखी . मै छोटा और अकिंचन पत्रकार जो महज चौबीस सालों से पत्रकारिता कर रहा हो इनके चिंता पर सवाल खड़ा करे यह अच्छा नहीं लगता लेकिन मुझे लगता है कि इनकी चिन्ताओ से विरोध होना चाहिए . इसलिए कि हम डेमोक्रेसी में जी रहे हैं और आनेवाली पीढियों को निराश नहीं होने देना चाहिए ..
हम तमाम तर्क दे ले लेकिन अगर देश दुनिया को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले तत्व हैं तो राजनीति और राजनीतिग्य . संविधान की व्यवस्था के तहत हम अदालती मामलो में ज्यादा दखल नहीं दे सकते वैसी हालत में कार्यपालिका और विधायिका ही दो ऐसे क्षेत्र हैं जो आम जनजीवन को गहरे तक असर करती है . और विधायिका तो कार्यपालिका को निर्देशित करता है . यह इस देश का सौभाग्य है कि विधायिका और कार्यपालिका के खिलाफ लिखने की छूट हमें हासिल है जिस कारण पत्रकारिता और पत्रकार इनके इर्द गिर्द घूमता रहता है . यह बुरा भी नहीं है क्योंकि इनकी मौजूदगी बहुत हद तक कार्यपालिका और विधायिका की निरंकुशता और भ्रष्ट आचारण पर नकेल कसे होती है ..और जिस बात पर हमारे वरिष्ठ पत्रकारों ने चिंता जाहिर की है (पत्रकार और सत्ता का गठजोड़ ) . उसमे कितने फीसदी पत्रकार लिप्त हैं ? शायद पांच फीसदी तक .. क्या किसी भी समाज के लिए इतना छोटा सा प्रतिशत को ग्रांट में नहीं लिया जा सकता . जब हर क्षेत्र में हर वर्ग में मूल्यों का ह्रास हो रहा है तो उसी मानवीय गुणों को लेकर तो पत्रकारिता करने कुछ पांच फीसदी पत्रकार भी जुड़ जाते हैं . इन्हें लेकर ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं . पत्रकार चौबीस घंटे काम करता है लेकिन वेतन एक ही शिफ्ट का लेता है यानि आज भी पत्रकार एक तिहाई वेतन पर काम कर रहे हैं ,इसके बाद भी उनकी कार्य क्षमता और नीयत पर सवाल खड़ा करना गलत होगा सत्ता के साथ नजदीकी होना उनका व्यवसाय गत मजबूरी भी है . और ऐसे पत्रकारों पर बड़ी आसानी से सवाल खड़े किये जाते हैं . किसी के खिलाफ में खबर छापी तो आरोप लग जायेगा विपक्ष ने प्लांट किया है या पैसा नहीं मिला इसलिए ऐसी खबर छापी , किसी के पक्ष में छापा तो तोहमत लगेगा कि बिक गया पत्रकार . इसलिए तलवार के दोधार पर पत्रकार होता है
अब रही व्यावसायिकता की बात ...बदलती व्यवस्था और बदलते दुनिया का यह सच है ..आज हम कई नामी अखबार और पत्रिका से इसलिए महरूम हो गए क्योंकि उन्होंने आहट को पहचाना नहीं . रांची और झारखण्ड में दो रूपये और एक रूपये में अखबार बिकते हैं . महंगाई और व्यावसायिकता के इस दौर में यह निहायत मजाक नहीं लगता है ,?लेकिन यह सच्चाई है . आज झारखण्ड के धुर देहात में जाये, वहां भी अखबार पढने को मिल जायेगा . सूचना का इतने गहरे तक पहुच व्यावसायिकता की दौड़ में भी कैसे संभव हुआ इसपर भी वरिष्ठ पत्रकारों ने सोचा है ?. महज विज्ञापन के भरोसे चलने वाले इन अखबारों ने पाठको को दो रुपया में अखबार पढ़ा दिया इसकी वजह है व्यावसायिक मैनेजमेंट . लेकिन इस विधा में भी हमने पत्रकारिता के मिशन मोटो को छोड़ा नहीं है .प्रतिस्पर्धा आयी तो खुलापन आया .अगर किसी खबर को एक संस्था दबाता है तो दूसरा उस खबर की बखिया उधेड़ देता है . पाठक निश्चिन्त है यहाँ नहीं तो वहा होगा .. समाचार सूत्र पत्रकारों को धमकाता है कि अगर मेरी खबर नहीं छापियेगा तो दूसरे अखबार को दे दूंगा . यह सकारात्मक परिवर्तन के हम साक्षी नहीं है क्या ?
आज अखबारी संस्था केवल सूचना नहीं पंहुचा रहा है ,सामाजिक सरोकारों से भी सीधे जुड़ा है . सेमिनार , बैठके जन जागरूकता अभियान कैम्पेन अखबारों के अभिन्न हिस्से हो गए है . भले इसका एक कारण प्रचार पाना और व्यावसायिक लाभ पाना हो लेकिन इसके साथ ही समाज का भला हो रहा है इसे क्यों नजर अंदाज किया जा रहा है ?
और अंत में सबसे महत्त्व पूर्ण बात . जिन बड़े पत्रकारों ने थोक के भाव विमर्श में पत्रकारिता पर कलम चलाकर खेद जताया है उन्होंने पत्रकारिता के शत प्रतिशत शुचिता के कोई अभियान चलाया क्यों नहीं ? या केवल सवाल खड़े करनेकी जिमेवारी भर है उनकी जवाबदारी के लिए कौन सामने आएगा .
एक बात के लिए और धन्यवाद देता हूँ . क्षेत्रीय पत्रकारिता को भाषाई पत्रकारिता कहने का न जाने कब से चलन चला हुआ है . मुझे इसपर ऐतराज है . भाषाई कहकर हम अख़बार के व्यापक संदर्भो को सीमित कर देते हैं .आपने इस पारंपरिक मोहजा को छोड़ा ..शुक्रिया !!!
No comments:
Post a Comment