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Wednesday, April 6, 2011

भ्रष्टाचार : एक अप्रासंगिक प्रसंग

बिलकुल मजबूरी में , नहीं चाहते हुए और बेखबरी में ही अब अखबार खबर नहीं कुंठा बेचने लगे हैं , या यूँ कहे कि माहौल , व्यवस्था , संस्कार और निष्ठां ऐसे बन गए हैं कि इसमें से निकलने वाली खबरे लोगो को हतोत्साहित , निराश और बेचैन करने लगी हैं . अगर सन्दर्भ मधु कोड़ा एंड कम्पनी के सत्तर ठिकानो पर आयकर की छापामारी की खबर को ले तो अधिक आसानी होगी यह समझाने में कि जिन बदले माहौल में हम रह रहे हैं वहां लाचारगी और जिल्लत भरी जिंदगी का रोना एक आम आदमी रोता है तो क्या यह निहायत स्वाभाविक नहीं है?
मधु कोड़ा और उनकी कम्पनी अब भ्रस्टाचार के लिए नहीं बल्कि एक महिमामयी , ऐश्वर्यशाली बड़ी हैसियत और औकात वालो की मंडली के रूप में प्रतिस्थापित हो गयी है . जिसमे चालाक राजनीतिग्य , चमत्कारी किस्म के व्यापारी और चतुर नौकरशाहों ने एक `अभिजात्य` कुनबा बना रखा है जहा आम लोगो की पहुच नहीं और यह रहस्यमयी चका चौंध बिलकुल अलौकिक है . आयकर विभाग की छापामारी की खबर इसलिए आम लोगो को कचोटती है . दो कौड़ी के राजनीतिग्य , दलाल किस्म के उनके सहयोगी और दिगम्बर होने को तैयार बैठा नौकरशाहों की फ़ौज के करतूतों को सरेआम करने के लिए आयकर विभाग , पुलिस और प्रशासनिक कर्मियों का एक बड़ा अमला सर खपाता रहा . यह उर्जा कहीं और इस्तेमाल हो सकती थी . अब तो छापामारी एक गर्व की बात हो गयी है जो यह अहसास कराता है की उसमे वह औकात और हैसियत है कि भ्रष्ट होकर भी वह अखबारों का बैनर हेड लाइन बन सके , आम लोगो से काफी ऊपर दिखाई पड़े और करोड़( रूपये ) शब्द उनके लिए महज एक खिलवाड़ हो . इन्होने पैसा कमाने के लिए शर्म, हया, ईमानदारी, कर्तव्य , आदर्श जैसे भाव और संवेदना को अपने कुछ नए निष्ठाओं से जोड़ दिया है जिसे भ्रष्टाचार कहना भी अब भ्रष्टाचार के साथ अत्याचार होगा क्योंकि इस समुदाय के लिए भ्रष्टाचार एक शिष्टाचार बन गया है जिसके तहत ही ईमानदारी और निष्ठां जैसे शब्द और भाव जुड़ गए हैं . अब लगता है कि भ्रष्टाचारी होना एक ग्लैमर वाली बात है ,गरिमा वाली बात है . और इसका हिस्सा नहीं बन पाने इसका भोग नहीं कर पाने वाले लोब बेबस , अव्यवहारिक लाचार , निरीह , मूर्ख , नादान और अभावग्रस्त प्राणी हैं . इसीलिए आयकर कि छापामारी जैसे प्रकरण और घटना इन शिष्टाचारी भ्रष्टाचारियों के लिए कोई शर्म का विषय नहीं होता है . इनके आलिशान महल और दमकते कमरे कि तस्वीरे जब अखबारों में छपते हैं तो खबरे शून्य हो जाती है और मकानों दुकानों , फैक्टरियों और प्रतिष्ठानों कि भव्यता आकर्षित करने लगती है और खुद का अभाव का भाव कचोटने लगता है .कभी रहा होगा समय कि भ्रष्टाचार के नाम पर लोगो में गुस्सा और आक्रोश हुआ करता था अब तो यह विस्मय का विषय रह गया है और हम सिर्फ यह सोचते हैं कि अरे .. मधु कोड़ा चार सौ करोड़.... फलां पांडे सौ करोड़ .. फलां सिन्हा इतना ..यानि भ्रस्टाचार के ये पैमाने केवल रिकार्ड बनाने और बिगड़ने तक ही सीमित रह गए हैं . कोई गुस्सा नहीं है कोई आक्रोश नहीं है कोई आन्दोलन नहीं है कोई बवंडर नहीं है समाज को जगाने खड़ा करने उन्हें चलाने या फिर क्रांति लाने का . अखबारों में बड़े पैमाने पर विज्ञापन छापे जा रहे जिसमे पौरुष बढाने के नुस्खे और दवा की चर्चा की जा रही है . दरअसल दवा कंपनियों को चाहिए कि शारीरिक पौरुष के अलावा मानसिक पौरुष बढाने वाले दवाइयों का भी निर्माण करे . नपुंसकता केवल जननेन्द्रियो तक सीमित नहीं रह गयी है अब यह उर्ध्व्गामिनी होकर दिल दिमाग और मनोभावों तक को कापुरुष बना चुकी है . यही वजह है कि अखबारों में भ्रष्टाचार की खबरे छपने और उसे पढने के बाद भी यही भाव उठने लगा है कि अरे .. पाण्डेय कर सकता है मै क्यों नहीं... सिन्हा कमा सकता है मै .. लो वह करोडपति हो गया मेरी ही किस्मत ख़राब थी .... पैसा बड़ी चीज है .. मौका मिले तो कमाना चाहिए ... बहरहाल ऐसे विचारो कि इन्तहां तो यह हो गयी है कि ये केवल भाव नहीं बल्कि स्लोगन बन गए है , बड़े अपने छोटो को और सहयोगी अपने मित्रो को खुलेआम ऐसी नसीहते दे रहे है . ऐसे में अखबारों कि ये खबरे आम लोगो में इमानदार होने की कुंठा जगाती हैं . दमित और अभागा होने का अहसास कराती है और आम आदमी की भीड़ में खो गए व्यक्तित्व का बोध कराती है . हलाकि यह भी सनझ की बात और और पत्रकारीय धर्म है कि हर तरह की खबरे लोगो तक पहुचाई जाये भले ही लोगो के दिलो को छूने के लिए बोल्ड लेटर के हेडिंग चटखदार सब हेडिंग लगानी पड़े . कुल मिलाकर भ्रष्टाचार अब एक ऐसा प्रसंग बन गया है जो प्रासंगिक है ही नहीं
संभव है अगर ये आलेख छप जाये और कोई पढ़े तो वह भी कही ऊँगली न उठा दे कि यह एक कुंठित विचार की अभिव्यक्ति है . लेकिन समाज के बदलते उसूलो , प्रतिमानों और संदर्भो से जी इतना उचटने लगा है कि यह उलाहना भी सहा जा सकता है . लेकिन इन बदलते परिवेश और संदर्भो में भी कुछ बाते ऐसी हैं जो सनातन सत्य है और जिसकी परिभाषाये तर्क और अर्थ हर काल, पात्र और स्थान पर एक ही है . सिकंदर एक फकीर दायोजनिज से मिलने गया . वह फकीर दिगंबर हालत में सोया पड़ा था . फकीर ने सिकंदर से पूछा ` कहाँ जा रहे हो ? ` सिकंदर ने कहा -` एशिया मैनर जीतना है `. फकीर ने पूछा - फिर ? सिकंदर बोला- भारत जीतूंगा . ... फिर ? फिर बाकी बची दुनिया जीत लूँगा . फकीर ने पूछा- फिर ? सिकंदर बोला - फिर क्या, फिर आराम करूंगा ? फकीर बोला वह तो मैं कर रहा हूं बिना एशिया जीते बिना भारत जीते मैं आराम कर रहा हूं ?
कोड़ा एंड कम्पनी साहब , ऐसे ही हजरात , या फिर ऐसा ही करने की सोचने वाले भाई दायोजनिज फकीर कि जुबान सुनिए समझिये और गुनिये . ये करोडो लेकर आप ऊपर नहीं जायेंगे . कफ़न में पाकेट नहीं लगे होते हैं
अंत में कभी किसी की दोहराई गयी एक लाइन फिर से दोहरा रहा हूँ ` सब ठाठ धरा रह जायेगा जब लाद चलेगा बंजारा `

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