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Tuesday, May 3, 2011

हारो तो हूरो और जीतो तो थूरो
सन्दर्भ / अतिक्रमण हटाओ अभियान आलेख / योगेश किसलय
झारखण्ड में अतिक्रमण हटाने का मुद्दा राजनीतिक और सामाजिक संगठनो के लिए एक विटामिन युक्त खुराक बन गया है जिसमे इन्हें अपने संगठन का बाजार उड़ान भरता दिख रहा है . कोई खुद को गाँधी या अन्ना हजारे साबित करता दिख रहा है तो कोई गरीब गुरबो का सबसे बड़ा हमदर्द , तो कई परदेसी चेहरे(दूसरे राज्यों के ) अपना राजनीतिक और सामाजिक ठौर बनाने के लिए झारखण्ड आकर चेहरा चमका गए. गली, नुक्कड़, चौराहे, अनशन और प्रदर्शन से तारी हो गया है .होड़ लग गयी है गरीबो का सबसे उत्तम सरमायादार कौन . गरीबो के नाम पर इतनी राजनीति गरीबी हटाओ अभियान के दौरान भी नहीं हुई थी .अब इन अदालती निर्देशों की अवहेलना कैसे की जाये इसके लिए भी खादी वाले भाइयो ने जुगाड़ बिठा रखा है वे अदालत के आदेशो को अपने ही तरीके से समझाते हैं और अदालत के आदेशो की तामीली को सरकारी कारवाई बताते हैं . यानि " हारो तो हूरो ,और जीतो तो थूरो " . इन महानुभावो से सवाल यह है कि -----
कौन है गरीब ?
क्या वह जिसके लिए कानून , सरकार , संविधान ,पुलिस ,प्रशासन सभी गौण है . गरीब के नाम पर कुछ भी करने की छूट है . गरीब के नाम पर वह सरकारी जमीं पर कब्ज़ा कर सकता है , गरीब के नाम पर सड़क या चौराहे पर दुकान खोल ले सकता है गरीब के नाम पर अवैध निर्माण कर सकता है . यह तो बिना पूँजी लगाये अच्छा धंधा है . गरीब का तमगा लगा लो और सरकारी जमीं --मकान ढांप लो , अगर कोई हटाने आये तो कहो कि बदले में मुफ्त की जमीन दो , पुनर्वास दो नहीं तो हम कहाँ जाये . और यह केवल रहने के लिए नहीं, साहब को धंधे के लिए भी जगह दो मुफ्त में . वर्ना इनके सरमायेदार झंडा पताका लेकर जुलूस निकलेंगे , धरना देंगे और सडको पर उत्पात मचाएंगे , अनशन करेंगे कि गरीब के पेट में लात मारा जा रहा है खादी वाले भाइयो को वोट की चिंता सता रही है . वह तो शुक्र है कि अतिक्रमण हटाने का मामला अदालत के निर्देश पर चल रहा है वरना सत्ता में बैठे रहनुमाओं को भी कीचड लपेटने से गुरेज नहीं होता .
अब हकीकत क्या है इसे भी समझे -----
१.अतिक्रमण से उजड़ने वाले अस्सी फीसदी गरीब नहीं थे . उनके घर कोई झोपडी नहीं थे .उनमे सुविधा के तमाम साधन थे . कई मकान तो दो तला या तीन तल्ला भी थे जिसमे मकान बनाने वाला नहीं रहता था बल्कि वह किराये पर उठा दिया गया था . अतिक्रमित क्षेत्र में दूकान तक बनाया गया जिसे किराये पर उठाया गया .. ये इलाके शहर के बीचोबीच पड़ते है जिस जमीन की कीमत करोडो या अरबो में होगी . यानि गरीबी के नाम पर लाखो की जमीं पर कब्ज़ा करना सही है
२ अगर इन उजड़े गरीबो की पृष्ठभूमि समझे तो पता चलेगा कि अधिकांश लोग दूसरे राज्यों से यहाँ आये और जहाँ मौका मिला जमीं ले ली . भले ही वह सरकारी जमीं क्यों न हो . झारखण्ड के सार्वजनिक कंपनियों के इलाके में अतिक्रमित लोगो का इतिहास देखे तो साफ़ जाहिर होगा कि जिन्होंने अधिग्रहण के दौरान अपनी जमीन सरकार को दे दी वे तो भूमिहीन हो गए लेकिन जिन्होंने उनके विस्थापन को लेकर झंडा उठाया उन्होंने ही सरकारी जमीन पर झंडा गाड़ा . अब वे विस्थापित होने का ढोंग कर रहे हैं . आंकड़े निकाले जाये तो स्पष्ट होगा कि अतिक्रमण से हटाये गए लोगो में मुश्किल से कुछ प्रतिशत आदिवासी और कुछ प्रतिशत ही स्थानीय लोग हैं . आप बिहार के गाँव में जाकर देखे अधिकांश घरो में आपको तले लटके मिलेंगे इसलिए कि वहा के लोग झारखण्ड और दूसरे इलाको में कमाने खाने गए हैं . यह उनका अधिकार है लेकिन यह कहना कि वे गरीब और भूमिहीन हैं गलत होगा
३ रांची की सडको के बीचो बीच ठेला लगाकर या चादर बिछाकर बाजार लगाने का क्या मतलब . गरीब हाकर है तो सड़क पर ही कब्ज़ा जमा लेंगे सड़क पर चलने वालो को कितनी परेशानिया थी यह खादी धारियों को पता नहीं चलेगा क्योंकि उनके लिए पायलट गाड़ी सायरन बजाती गाड़िया और उनके लिए सड़क ख़ाली कराने के लिए आम लोगो पर डंडे भांजती पुलिस जो लगी होती है . मान लीजिये गरीबी का हवाला देकर सड़क के बीचोबीच मै एक खटिया लगाकर बनियान बेचना शुरू कर दू तो आप बर्दाश्त करेंगे .
४ इन खादी वाले भाइयो की एक तार्किक मांग यह भी है कि जिस अधिकारी के कार्यकाल में अतिक्रमण हुआ उसपर भी कार्रवाई हो . बिलकुल हो .. लेकिन यह अतिक्रमण तब हुआ जब लालू का राज था . तब जिले के उपायुक्त से लालू खैनी बनवाया करते थे . ऐसे में किस अधिकारी की हिम्मत थी कि लालू के चमचो बेलचो को सरकारी जमीन हडपने से रोकता .बिहार में भी लालू के जाने के बाद ही वही अधिकारी कार्यकुशल बन गए जो लालू के काल में निकम्मे थे . इसके बाद भी मै कहता हूँ कि उन अधिकारियो पर कार्रवाई हो
वैसे जनाब , गरीबी कोई स्थिति नहीं होती केवल मानसिकता होती है . मै रांची के प्रमुख चौराहे पर आज भी जब एक महिला को फल बेचते देखता हूँ तो उसके प्रति अगाध श्रद्धा उमड़ आती है . दस साल पहले इसी महिला को मैंने अपने विडिओ कैमरे में अपने बच्चे को बेचते शूट किया था . न जाने कब इस महिला का दिमाग पलटा और आज अच्छी खासी अपनी दुनिआदारी फल बेचकर चला रही है. इसीलिए गरीबी की परिभाषा राजनैतिक स्वार्थो के चश्मे से तय न की जाये जब एक उतनी लाचार महिला जीने का सहारा खोज सकती है तो गरीबी के नाम पर भिखमंगी क्यों की जाये .
... और हे गरीब जनों आप जान ले ये जो आपके लिए लड़ने मरने का ढोंग कर रहे हैं उन्हें आपकी चिंता नहीं है उन्हें आपके वोट की चिंता है . आपकी चिंता करके इन्हें अपने पैरो में कुल्हाड़ी मारनी है क्या . फिर कैसे गरीब के नाम पर वोट , दलित के नाम पर वोट , अल्पसंख्यक के नाम पर वोट पिछडो के नाम पर वोट मिलेगा . इन्हें अपने बाजार से मतलब है .जिस दिन आप जाग जायेंगे ओसामा की तरह कोई कंक्रीट लगा दीवार का ठौर खोज लेंगे और अज्ञातवास पर चले जायेंगे .
..अंत में मै कोई सरकारी प्रवक्ता नहीं हूँ अमीरों का एजेंट नहीं हूँ . इकतालीस साल से रांची में रह रहा हूँ लेकिन अपना घर रांची में नहीं है .मेरे पूर्वज पांच सौ सालों से झारखण्ड के वाशिंदा हैं और रांची जिले के ही एक गाँव में उन्होंने घर बनाया . उसका भी कुछ हिस्सा तोडा जा रहा है अतिक्रमण के कारण .ठीक है टूटना चाहिए . मै कोई करोडपति भी नहीं हूँ कि ऐसे आलेख उसी अमीरत्व के दंभ में लिख ली जाये . मुझे लगा कि सभी बहस की गंगा में अपने बोल वचन भी बहा रहे हैं तो कुछ कडवे सत्य भी आपके नजर पेश की जाये .......
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