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Sunday, January 27, 2013

दामिनी आदिवासी थी या दलित ,
पिछड़े वर्ग की थी या गरीब ,
आदमी को आदमी नहीं समझने वाले सोचते हैं ऐसा ,
हर वस्तु में खोजते हैं आवरण ,
यह आवरण होता है वर्ण का ,
चमड़े का ,
जाति का और जन्म का ..
क्योंकि वे अपनी पहचान भी 
इसी आवरण में ढूंढते हैं 
इसी आवरण में रेंगता है उनका अस्तित्व 
अस्तित्व बचाने के लिए शब्दों के चाबुक लेकर टूट जाते हैं ये ,
आत्मप्रशंसा का समूह लिए
भौंकते हैं अक्सर
और लाख कोशिश के बावजूद
टुकड़े टुकड़े में दामिनी
बँटी दिखती है
तड़पती दामिनी के दर्द को
और गहरा कर देती है इनकी नस्लीय सोच
इसका इलाज न तो सरकार है न सत्ता ,
तोडना होगा इनके पाखण्ड को
नही तो तोड़ डालेंगे ये समाज को ....

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